विश्व भर में बढ़ते आतंकवाद में एक विशेष कौम का रूप से सक्रिय पाया जाना विश्व भर के लोगों में एक भ्रम पैदा कर रहा है, जिससे इस विशेष कौम पर निरंतर सवाल उठते जा रहे हैं। यह विदित है,कि कोई कौम, कोई महज़ब किसी को हिंसक पाठ नहीं पढ़ाता । हर धर्म का वजूद उनकी पाक पहचान उनकी प्रवित्रता है। बात इस्लाम धर्म की हो रही है, एक ऐसा धर्म जिसका इतिहास देखा जाए तो पाऐंगे कि यह धर्म कई पाक मानकों से गुजरता हुआ , विश्व के प्राचिन धर्मो मे से एक है, जिसका अनुसरण करने वाली एक बड़ी आबादी विश्व के हर कोनो में दिख जाऐगी जो मुसलमान या मुस्लिम कहे जाते है। इस धर्म के कुछ विशेष पहलूओं पर ध्यान देना इसलिए जरूरी पड़ जाता है , कि बढ़ते आतंकवाद ने इस धर्म के सभी लोगों पर आतंकवाद की मोहर लगा दी है। बार - बार उन्हे शक की निगाहों से घूरा जाता है, और कई बार इनसे असामाजिक बर्ताव भी किया जाता है।
शुरूआत अगर इस्लाम शब्द से करें तो देखेंगे कि इस शब्द का अर्थ ही ‘अमन’ यानि शांति , प्रेम है ,और जिस धर्म की शुरूआत ही अगर प्रेम से हो , तो भला वो धर्म खराब कैसे हो सकता है ? रही बात आतंकवाद की ,तो आतंकवाद का न ही कोई धर्म होता है , और न ही कोई मज़हब । आतंकवादी कोई भी हो सकता है , किसी भी धर्म , किसी भी मज़हब का । आतंकवादी का सिर्फ एक ही धर्म होता है , वो है, हिंसा, अपने ऐजेंडे के तहत दहशत फैलाना । हिंसा किसी भी कारण से हो सकती है, धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक , किसी भी रूप में यह वयाप्त हो सकती है। अगर मन में सवाल यह उठ रहा कि क्या अच्छे मकसद के लिए हिंसा का रूख अख्तियार करना आतंकवाद है ? तो इसमें एक ही बात जोड़ी जा सकती है, कि आतंकवाद का सहारा गलत मकसद, इरादों के लिए ही किया जाता है, जिसका अंतिम रूप लोगों में दहशत के रूप में सामने आता है, और अगर इस दहशत को खत्म करने की लिए हिंसा का रूख करना पड़े तो इसे आतंकवाद की श्रेणी में नहीं गिना जाएगा । आतंकवाद के विषय में दार्शनिक जानकारी इसलिए कि जो इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं, उनकी यह गलतफ़हमी दूर हो सकें , और वो समझ सकें कि इस्लाम एक पाक धर्म है, जो 'मज़हबी भाईचारें' को बढ़ावा देता है , न कि 'मज़हबी जंग' को ।
'जेहाद' जैसे शब्द का भी लोग कुछ अलग मतलब निकालते नज़र आते है, वो इसे हिंसा भडकाने वाला , जिसके नाम पर 'मज़हबी' मार-काट पर उतारू हो जाते है, जैसा समझते हैं। दरअसल उन्हे 'जेहाद' का सही मतलब पता ही नहीं, ‘जेहाद’ इन भ्रामक परिभाषाओं से कोसो दूर है, जेहाद का सही मतलब है, 'अल्लाह की राह पर बढ़ने की निरंतर कोशिश करना' और यह पूरी तरह अहिंसक है। इस्लाम के संथापक मोहम्मद पैगंबर कहते हैं , कि असल जेहाद वह है, जो अल्लाह के लिए खुद की बुराईयों से जंग लड़ता है। जो यह करता है , वह शारीरिक तौर पर अल्लाह की राह पर आगे बढ़ जाता है। यही शारीरिक जंग ही सही मायने में जेहाद है।
पिछले कुछ वर्षो से आतंकवाद का जो दहशत भरा मंजर सामने आया है, और जिसमें एक विशेष आतंकी संगठन 'इस्लामिक स्टेट' की सक्रिय भूमिका बताई जाती है, उसने इस कौम की मुसिबतें और बढ़ा दी है। बात अलग है , इस आतंकी संगठन से जुड़े कथित रूप से इस्लाम को मानने वाले ही होते हैं, लेकिन उन्हे इस्लाम का सच्चा अनुसरणकर्ता कहा जायें तो यह इस्लाम धर्म की पाक 'तरबीयत ' (शिक्षा) पर दाग लगाने जैसा होगा। सच्चा़ई यह है कि हर मुसलमान इस्लाम धर्म की इबादत करता हो , यह कहना भी गलत होगा, क्योंकि मुसलमान वही है , जिसका 'मुसल्लम' ईमान हो, यानि 'सच्चा ईमान' रखने वाला ही इस्लाम का सही अनुसरणकर्ता है, वही सच्चा मुस्लिम है । और वो लोग जो खुद को इस्लामिक कहकर आंतकी गतिविघियों को अंजाम देते है , वे बस एक दहशतगर्द हैं। और इन दहशतगर्दो के नाम पर पूरी कौम को निशाना बनाना सरासर गलत होगा।
आतंकियों के दहशत भरे कारनामों से उत्पन वैचारिक मतभेवों का सामना भारत के मुस्लिमों को भी करना पड़ रहा है, उन्हे भी एक अलग निगाह से देखा जा रहा है। पर यह सच्चाई है, कि भारत से अलग देशों के मुस्लिमों में जो उर्गता, कट्टरता है, वह भारत के मुस्लिमों मे देखने को नहीं मिलती। कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ब्रिगेड धार्मिक वैचारिक मतभेवों को हवा देने का प्रयास करते रहते है, जिससे देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा होता है, जो कभी-कभी कुछ ज्यादा ही भयावह रूप में सामने आता है, जिसका अच्छा उदाहरण , मुजफ्फरनगर , व गोधरा कांड से लगाया जा सकता है। खैर यह एक ऐसी चर्चा है , जिसका मौजूदा हालातों को देखकर अंत होना असंभव सा ही लगता है। जो कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां विभिन्न धर्मो का अनुसरन करने वाले लोग है, तो इस विषय को जानना और समझना जरूरी हो जाता है। अब वो वक्त आ गया है, कि हम अपना खुद का नजरियां विकसित करें न कि दूसरे के पहनाए चश्में से दुनिया को देंखे। सभी धर्मो से बड़ा धर्म ‘मानवता’ है , उसे अपने अंदर जगह देने की कोशिश करें । सही और गलत में फर्क करना सीखें । एक सोच विकसित करें ताकि अपनी मौलिक समझ को सबके सामने रख सकें।
- नृपेन्द्र बाल्मीकि